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Poetry Sumitranandan Pant Poems In Hindi

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Poetry Sumitranandan Pant Poems In Hindi

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Sumitranandan Pant Poetry: सुमित्रानंदन पंत को काव्य जगत के छायावादी काल के महान कवि के रूप में जाना जाता है. सुमित्रानंदन पंत का जन्म नैसर्गिक खूबसूरती से भरपूर अल्मोड़ा में हुआ था. उनकी कविताओं में प्राकृतिक खूबसूरती का सुन्दर वर्णन मिलता है. साहित्य जगत में उनके अमूल्य योगदान के लिए उन्हें पद्मभूषण व ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया. आज पढ़िए उनकी लिखी कुछ चुनिंदा रचनाएं.

1. छोड़ द्रुमों की मृदु छाया

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल तरंगों को,
इन्द्रधनुष के रंगों को,
तेरे भ्रू भ्रंगों से कैसे बिधवा दूँ निज मृग सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ, सजनि, श्रवण?
भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा-रश्मि से उतरा जल,
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!

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2. स्त्री

यदि स्वर्ग कहीं है पृथ्वी पर, तो वह नारी उर के भीतर,
दल पर दल खोल हृदय के अस्तर
जब बिठलाती प्रसन्न होकर
वह अमर प्रणय के शतदल पर!
मादकता जग में कहीं अगर, वह नारी अधरों में सुखकर,
क्षण में प्राणों की पीड़ा हर,
नव जीवन का दे सकती वर
वह अधरों पर धर मदिराधर।
यदि कहीं नरक है इस भू पर, तो वह भी नारी के अन्दर,
वासनावर्त में डाल प्रखर
वह अंध गर्त में चिर दुस्तर
नर को ढकेल सकती सत्वर!
3. प्रथम रश्मि

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
सोयी थी तू स्वप्न नीड़ में,
पंखों के सुख में छिपकर,
ऊँघ रहे थे, घूम द्वार पर,
प्रहरी-से जुगनू नाना।
शशि-किरणों से उतर-उतरकर,
भू पर कामरूप नभ-चर,
चूम नवल कलियों का मृदु-मुख,
सिखा रहे थे मुसकाना।
स्नेह-हीन तारों के दीपक,
श्वास-शून्य थे तरु के पात,
विचर रहे थे स्वप्न अवनि में
तम ने था मंडप ताना।
कूक उठी सहसा तरु-वासिनि!
गा तू स्वागत का गाना,
किसने तुझको अंतर्यामिनि!
बतलाया उसका आना!
4. भारतमाता

भारत माता
ग्रामवासिनी।
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल,
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी कि प्रतिमा
उदासिनी।
दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
अधरों में चिर नीरव रोदन,
युग युग के तम से विषण्ण मन,
वह अपने घर में
प्रवासिनी।
तीस कोटि संतान नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन,
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
नत मस्तक
तरु तल निवासिनी!
स्वर्ण शस्य पर -पदतल लुंठित,
धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
क्रन्दन कंपित अधर मौन स्मित,
राहु ग्रसित
शरदेन्दु हासिनी।
चिन्तित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित,
आनन श्री छाया-शशि उपमित,
ज्ञान मूढ़
गीता प्रकाशिनी!
सफल आज उसका तप संयम,
पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
हरती जन मन भय, भव तम भ्रम,
जग जननी
जीवन विकासिनी।

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5. जग-जीवन में जो चिर महान

जग-जीवन में जो चिर महान,
सौंदर्य-पूर्ण औ सत्‍य-प्राण,
मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ!
जिसमें मानव-हित हो समान!
जिससे जीवन में मिले शक्ति,
छूटे भय, संशय, अंध-भक्ति;
मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!
मिट जावें जिसमें अखिल व्‍यक्ति!
दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा प्रसार,
हर भेद-भाव का अंधकार,
मैं खोल सकूँ चिर मुँदे, नाथ!
मानव के उर के स्‍वर्ग-द्वार!
पाकर, प्रभु! तुमसे अमर दान
करने मानव का परित्राण,
ला सकूँ विश्‍व में एक बार
फिर से नव जीवन का विहान!

6. कुसुमों के जीवन का पल

कुसुमों के जीवन का पल
हँसता ही जग में देखा,
इन म्लान, मलिन अधरों पर
स्थिर रही न स्मिति की रेखा!
बन की सूनी डाली पर
सीखा कलि ने मुसकाना,
मैं सीख न पाया अब तक
सुख से दुख को अपनाना।
काँटों से कुटिल भरी हो
यह जटिल जगत की डाली,
इसमें ही तो जीवन के
पल्लव की फूटी लाली।
अपनी डाली के काँटे
बेधते नहीं अपना तन,
सोने-सा उज्ज्वल बनने
तपता नित प्राणों का धन।
दुख-दावा से नव-अंकुर
पाता जग-जीवन का बन,
करुणार्द्र विश्व की गर्जन,
बरसाती नव-जीवन-कण! (साभार-sahityadarpan)

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