Home Entertainment सिनेमा Kamlesh Pandey said – ‘Rang De Basanti’ was angry on Nehru’s disobedience, till date the corrupt leader has not been hanged from the telephone pole | कमलेश पांडे बोले- ‘रंग दे बसंती’ नेहरू की वादा खिलाफी पर निकला गुस्सा थी, आज तक भ्रष्ट नेता टेलिफोन के खंभे से नहीं लटकाए गए

Kamlesh Pandey said – ‘Rang De Basanti’ was angry on Nehru’s disobedience, till date the corrupt leader has not been hanged from the telephone pole | कमलेश पांडे बोले- ‘रंग दे बसंती’ नेहरू की वादा खिलाफी पर निकला गुस्सा थी, आज तक भ्रष्ट नेता टेलिफोन के खंभे से नहीं लटकाए गए

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Kamlesh Pandey said – ‘Rang De Basanti’ was angry on Nehru’s disobedience, till date the corrupt leader has not been hanged from the telephone pole | कमलेश पांडे बोले- ‘रंग दे बसंती’ नेहरू की वादा खिलाफी पर निकला गुस्सा थी, आज तक भ्रष्ट नेता टेलिफोन के खंभे से नहीं लटकाए गए

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मुंबई2 घंटे पहलेलेखक: अमित कर्ण

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इन दिनों भारतीय राजनीति खासकर सत्ता पक्ष के साथ साथ बॉलीवुड का एक धड़ा भी पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पर क्रिटिकल बना हुआ है। हाल ही में रिलीज हुई वेब सीरीज ‘रॉकेट बॉय्ज’ में नेहरू को कसूरवार दिखाया गया कि वो होमी जहांगीर भाभा को परमाणु परीक्षण करने की अनुमति देने के पक्षधर नहीं थे। वहीं ‘द कश्मीर फाइल्स’ में माना जा रहा है कि नेहरू की नीतियों की क्रिटिकल एनालिसिस होनी है।

दैनिक भास्कर ने नेहरू पर बॉलीवुड के उस धड़े के मौजूदा रवैये की वजह समझने की कोशिश की। हमने ‘तेजाब’, ‘खलनायक’, ‘बेटा’, ‘दिल’ जैसी सुपरहिट फिल्मों की राइटिंग से जुड़े रहे लेखक कमलेश पांडे से जाना कि उनकी ‘रंग दे बसंती’ किस तरह नेहरू की नीतियों या उनके बयानों से जुड़ी थी। पेश हैं कमलेश पांडे से बात चीत के प्रमुख अंश –

‘रॉकेट ब्वॉयज’ और हाल के कुछ और प्रोजेक्टों में पंडित नेहरू को कसूरवार दिखाया गया, बॉलीवुड का नेहरू जी के प्रति इस प्रेम या द्वेष की क्या वजह मानते हैं?
बॉलीवुड कोई अलग द्वीप नहीं है। भारत में ही यह है। मेरी ‘रंग दे बसंती’ नेहरू पर मेरे गुस्से से निकली थी। वह इसलिए कि 1956 में जब मैं जबलपुर में था तो नेहरू का एक बयान आया था। वह कुछ यूं था, ‘भारत में जो भ्रष्ट पाया जाएगा, वह नजदीक के टेलिफोन के खंभे से लटका दिया जाएगा।’ हम तो तब बच्चे थे। नेहरू हमारे लिए खुदा थे। हमारे चाचा थे। हमने उनके बयान को बिल्कुल मान लिया। हमें पता था कि हमारे शहर के कौन कौन भ्रष्ट हैं। अगले दिन हम स्कूल को निकले तो हम बच्चों ने शर्त लगाई कि देखना वो श्याम टॉकीज के सामने फलां लटकेगा। प्लाजा के सामने कोई और लटकेगा। या घंटाघर के पास वो लटकेगा। पर शाम को जब हम वापस लौटे तो सारे खंभे खाली थे।

आप आज की तारीख में हमारी तब की हैरत का अंदाजा नहीं लगा सकते, जो शॉक हमारे दिल को लगा। चाचा नेहरू ने क्या बोला, मगर कुछ भी नहीं हुआ। मजे की बात यह रही कि 1997-98 में जब मैंने ‘रंग दे बसंती’ लिखना शुरू किया, तब तक एक भी भ्रष्ट राजनेता एक भी टेलिफोन के खंभे से लटकाया नहीं गया था। तब तक तो खंभों की जगह फाइबर ऑप्टिक आ गया। आज तक एक भी नेता टेलिफोन के खंभे से लटकाया नहीं गया। लालू प्रसाद यादव भी नहीं। वो जो गुस्सा था, उससे निकली ‘रंग दे बसंती’। 1997-98 में, जब मैं वह लिख रहा था। जो स्क्रिप्ट है, फिल्म के किताब में, उसकी प्रस्तावना में मैंने यह लिखा भी हुआ है कि नेहरू की इमेज के सहारे एक ऐसा इल्युजन गढ़ा गया कि एक पूरी जनरेशन उन्हें खुदा सरीखा मानती रही। वह कभी गलती कर ही नहीं सकते। वह तो चाचा हैं हमारे। उस वक्त मीडिया ऐसी थी कि उनके खिलाफ कोई खबर छप ही नहीं सकती थी। अब चूंकि माहौल बदल गया है। नेहरू आदर्श फिगर नहीं रहें हैं, जो शांति के कबूतर उड़ाया करते थे।

‘रॉकेट ब्वॉयज’ में जो दावे हैं कि नेहरू जी ने भाभा को परमाणु परीक्षण की अनुमति नहीं दी थी, वह कितने सच हैं?
यह सच हो सकता है, क्योंकि जो कुछ मैंने पढ़ा बाद के बरसों में वह यह था कि नेहरू जी को अहिंसा का ऑब्सेशन था। तभी उन्होंने इतनी बड़ी भारी गलती कि जो कश्मीर को यूएनओ में ले गए। हालांकि उसकी कोई जरूरत नहीं थी। भारतीय सेना जीत रही थी। पीओके भी हमारे कब्जे में होता। मगर नहीं, नेहरू जी को शांतिदूत बनना था। मेरा मानना है कि उन दिनों एशिया में नेहरू की इमेज शांतिदूत की तरह बना दी गई थी। जो नॉन एलाइंड नेशंस थे, इजिप्ट, इंडोनेशिया, वगैरह, उन सभी के नेहरू एक तरह से नेता बने हुए थे। नेहरू को तो पहला थप्पड़ तब महसूस हुआ, जब चीन ने 62 में हमला किया था। हिंदी चीनी भाई-भाई पर जो विश्वासघात उनके साथ हुआ, उसका नतीजा था, जो वो उसके दो साल बाद चल बसे थे।

एक और आर्टिकल मैंने तब के दिनों में पढ़ा था। उसमें लिखा था कि नेहरू जी तो भारतीय आर्मी के भी पॉवरफुल होने के हिमायती नहीं थे, क्योंकि उनके सामने पाकिस्तान का एग्जांपल था, जहां अय्युब खान ने तख्ता पलट किया था। ऐसे में आर्मी को भी वो कम ही बढ़ावा देते रहे। उसका अंजाम यह था कि उनके कार्यकाल में हमने चीन से मात खाई थी। अच्छा उन्हीं चीजों का एक हिस्सा न्यूक्लियर बॉम्ब प्रोग्राम था। उन्हीं दिनों एक अमेरीका के सीआईए का एक आंदोलन ‘एटम फॉर पीस’ चला था। अमेरीका का मकसद सिर्फ अपने पास एटम बॉम्ब रखने का था। भारत में उस आंदोलन के मद्देनजर हर शहर में एग्जीबिशन लगे थे। इलाहाबाद में वैसे एग्जीबिशनों में मुख्य अतिथि गांधी जी के पोते थे। नेहरू भी उसके हिमायती ही थे। यह 1961 की बात है। तब मैं इलाहाबाद में पढ़ता था। वेस्टइंडीज का बड़ा प्लेयर कॉनरेड हंट भी उस कैंपेन का सदस्य था। नेहरू को देश की बजाय अपनी इमेज की ज्यादा चिंता थी। ये मेरा मानना है। यह शायद सही या गलत हो? वो अपनी इमेज के शिकार थे।

पर हम जिस ताकत के साथ फिल्मों और वेब सीरीज में नेहरू की नीतियों व फैसलों की आलोचना कर रहें हैं, क्या उतनी ताकत के साथ पीएम मोदी जी के फैसलों की आलोचना मुमकिन है?
बिल्कुल आलोचना होनी चाहिए। यह संभव है।

लेकिन पीएम मोदी की आलोचना तो नहीं हो रही है?
जी, मगर होनी चाहिए। चाहे मोदी जी हों या नेहरू जी। ऐसा नहीं है कि नेहरू जी ने अच्छे काम नहीं किए। शिक्षा के क्षेत्र में उनके काम उल्लेखनीय हैं। या मोदी जी फ्लॉलेस हैं। किसी से भी गलती हो सकती है। मगर आप को निष्पक्ष रहना होगा।

हालांकि ‘रंग दे बसंती’ जब आप 1997-98 में लिख रहे थे तो उस वक्त तो बीजेपी की एलायंस की सरकार थी, रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस थे तो नेहरू का गुस्सा जॉर्ज फर्नांडिस और तब के प्रमुख सचिव ब्रजेश मिश्रा पर निकला?
वो इत्तेफाक था। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा कि सरकार किसकी है। मगर शुरूआत कहां से हुई। बीज कहां पड़ा? मुझे जो सजा 1956 में चाहिए थी कि नेहरू भ्रष्ट नेताओं को दें, वो मुझे 1998 में अपनी एक फिल्म में अपने नेता को देनी पड़ी भगत सिंह बनकर। जो नेहरू नहीं कर सके, वह मैंने अपनी फिल्म में किया। रहा सवाल जॉर्ज फर्नांडिस का तो गुस्सा उन पर नहीं, सरकार पर था। मुझे गुस्सा सरकार पर था कि अपनी नाकामी छिपाने के लिए पायलट या किसी और पर बहाने डाल देती है। वह इत्तेफाक था, जो उस वक्त सरकार बीजेपी एलायंस की थी और रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस थे। अच्छा जो अनुपम खेर का किरदार था, वह तब के प्रमुख सचिव ब्रजेश मिश्रा का नहीं था। उन दिनों एक कारोबारी थे विन चड्ढा, जिनका नाम हथियारों की दलाली में आया था। वह किरदार उसका रिप्रेजेंटेशन था।

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