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‘कलम का सिपाही’ के जीवनीकार प्रेमचंद के पुत्र और ख्यात लेखक-कथाकार अमृतराय हैं. लेकिन उन्होंने यह जीवनी पुत्र होने के नाते नहीं, बल्कि एक लेखक की निष्पक्षता के साथ लिखी है.
प्रेमचन्द ने ‘हंस’ नाम की एक पत्रिका शुरू की थी. प्रेमचन्द के दूसरे बेटे अमृतराय ने 1948 में अपने प्रकाशन की शुरुआत की तो उसका नाम रखा—हंस प्रकाशन. पिछले वर्ष प्रेमचंद की जयंती 31 जुलाई, 2020 के दिन ‘हंस प्रकाशन’ हिंदी के बड़े प्रकाशन समूह ‘राजकमल प्रकाशन समूह’ (Rajkamal Prakashan) में शामिल हो गया.
‘कलम का सिपाही’ में आपको मुंशी अजायब लाल और आनंदी के बेटे धनपत राय या फिर नवाब के कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद होने तक के तमाम किस्से, घटनाएं और वार्तालाप पढ़ने को मिलेंगे. पेश है इसी जीवनी में से प्रेमचंद के बचपन के शरारत भरे रोचक किस्से-
प्रेमचंद का जन्म (Munshi Premchand Birthday)
लमही के कच्चे पुश्तैनी मकान में सावन बदी 10 संवत् 1937, शनिवार 31 जुलाई, सन् 1880 को उस लड़के का जन्म हुआ जिसे बाद को दुनिया ने प्रेमचन्द के नाम से जाना. लड़का ख़ूब ही गोरा-चिट्टा था. सब बहुत ख़ुश थे. पिता ने हुलसकर उसका नाम रखा धनपत और ताऊ ने नवाब.
नवाब से छ:-सात साल बड़ी थी. उसको भी मां कुछ कम प्यार नहीं करती थी, लेकिन नवाब में तो जैसे उसके प्राण ही बसते थे. लड़का चंचल था, जिसे ‘टोनहा’ कहते हैं, हरदम झाड़-फूंक करवाती रहती, राई-नोन से नज़र उतरवाती रहती—और डिठौना तो नवाब को पांच-छ: साल की उम्र तक लगाया जाता रहा. मां का बस चलता तो वह कभी बेटे को अपने आंचल से अलग न होने देती.
साथी का कान काट लिया
इस तरह बचपन के कुछ वर्ष, मां के प्यार की शीतल छांह में बहुत ही मधुर बीते. मां के लाड़ले थे और शरारत कहिए या चुहल, उनकी घुट्टी में पड़ी थी. आए दिन कुछ-न-कुछ हुआ करता और घर पर उलाहना पहुंचता. एक रोज़ ऐसा हुआ कि लड़के नाई-नाई खेल रहे थे. नवाब को शरारत सूझी, उसने ललान के ही एक लड़के रामू की हजामत बनाते-बनाते बांस की कमानी से उसका कान काट लिया. कान कटा तो ख़ैर नहीं, मगर ख़ून ज़रूर भलभल-भलभल बहने लगा. रामू रोता-पीटता अपनी मां के पास पहुंचा. मां ने बेटे के कान से ख़ून बहते देखा तो आगबबूला हो गई और एक हाथ से रामू को पकड़े झनकती-पटकती नवाब की मां के पास उलाहना देने पहुंची.
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नवाब ने जैसे ही उसकी आवाज़ सुनी, खिड़की के पास दुबक गया. मां ने दुबकते हुए उसको देख लिया और पकड़कर चार झापड़ रसीद किए. पूछा—रामू का कान तूने क्यों काटा?
नवाब ने निहायत भोलेपन से जवाब दिया—पता नहीं कैसे कट गया, मैं तो उसकी हजामत बना रहा था!
नवाब का निशाना मशहूर
फ़सल के दिनों में किसी के खेत में घुसकर ऊख तोड़ लाना, मटर उखाड़ लाना—यह तो रोज़ की बात थी. इसके लिए खेतवालों की गाली भी खानी पड़ती थी, लेकिन लगता है कि उन गालियों से ऊख और मीठी, मटर और मुलायम हो जाती थी! लमही चूंकि सदा से बहुत ग़रीब गांव रहा है, इसलिए कोई इस चीज़ को दरगुज़र भी न करता था और अक्सर इस बात का उलाहना आता. घर में डांट-फटकार भी होती लेकिन एक-दो रोज़ के बाद फिर वही रंग-ढंग.
ढेला चलाने में भी नवाब बहुत मीर थे, टिकोरे पेड़ में आते और उनकी चांदमारी शुरू हो जाती. ऐसा ताककर निशाना मारते कि दो-तीन ढेलों में आम ज़मीन पर नज़र आता. पेड़ का रखवाला चिल्लाता ही रह जाता और नवाब की मंडली आम बीन-बटोरकर चम्पत हो जाती. और सबसे ज़्यादा मज़ा तो निशानेबाज़ी में तब आता जब आम पकना शुरू हो जाते. तेज़ आंखें सब आम के पेड़ों को ताके रहतीं और जहां किसी डाल में कोई कोंपल दिखा नहीं कि ढेलेबाज़ी शुरू. मज़ाल है कि दो-तीन चक्कों में वह नीचे न आ जाए. रखवाला चिल्लाता है तो चिल्लाने दो, गाली देता है, देने दो, हमें आम से मतलब है कि उसकी गाली से! जब तक अपना लाठी-डंडा लेकर वह आएगा, हम कहीं के कहीं होंगे! अपनी मंडली में नवाब का निशाना मशहूर था, इस मामले में वह अपनी टोली के सारे लड़कों का सरताज था.
आज तक लोग उसका बखान करते हैं—वैसे ही जैसे उनके गुल्ली-डंडे का. सुनते हैं उनका टोल अच्छी तरह जमकर बैठ जाता था तो गुल्ली डेढ़ सौ गज की ख़बर लेती थी. लेकिन वह ज़रा बाद की बात है, अभी तो हाथ में इतना दम न था.
घर के सामने, जहां अब मुंशीजी का बनवाया हुआ अपना मकान है, एक बहुत ही पुराना, बहुत ही बड़ा इमली का पेड़ था. उसके नीचे लाला (महाबीर लाल) की मड़ैया तो थी ही, खेलने के लिए भी ख़ूब जगह थी, साफ़-सुथरी. वहां इमली के चियों और महुए के कोइनों से खेल होता और कबड्डी की पाली जमती.
इसी तरह बचपन के सुहाने दिन बीत रहे थे, कभी लमही में तो कभी पिता के साथ कहीं और.
उस वक़्त नवाब क़रीब छ: साल के थे. आठवें साल में उनकी पढ़ाई शुरू हो गई थी, ठीक वही पढ़ाई जिसका कायस्थ घरानों में चलन था, उर्दू-फ़ारसी. लमही से मील-सवा मील की दूरी पर एक गांव है लालपुर. वहीं एक मौलवी साहब रहते थे जो पेशे से तो दर्ज़ी थे मगर मदरसा भी लगाते थे.
थोड़ी-सी पढ़ाई थी, ढेरों उछल-कूद. चिबिल्लेपन की इन्तहा नहीं. कभी बन्दर-भालू का नाच है तो कभी आपस में ही घुड़दौड़ हो रही है. रामू, रघुनाथ पिरथी, पदारथ, बांगुर, गोवर्धन और और भी न जाने कितने, पूरी फ़ौज थी. तीन महीने मुतवातिर आमों की ढेलेबाज़ी चलती. इतने कच्चे आम खाये जाते कि फ़सल भर चोपी लग-लगकर मुंह फदका रहता. आम में जाली पड़ जाती तो फिर पना भी शुरू हो जाता. किसी के यहां से नमक आता, किसी के यहां से जीरा, किसी के यहां से हींग, किसी के यहां से नई हंडिया के लिए पैसा. फिर कोई हंडिया लाने चला जाता, बाक़ी लोग बांस की पत्ती बटोरने में लग जाते. पास ही बंसवारी थी. फिर आग सुलगाई जाती, आम भूने जाते. पना बनाने का पूरा एक शास्त्र था और इस शास्त्र के दो ही एक आचार्य थे. उनमें नवाब नहीं थे. पर हां, हिस्सा लेने में सबसे आगे रहते थे. यह तो गर्मी का नक़्शा था.
जाड़े के दिनों में ढेरों ऊख तोड़ लाए. उसी में यह भी बाज़ी लगी हुई है कि ऊख की चेप कौन सबसे बड़ी निकाल सकता है! कभी कोल्हाड़े में चले गए जहां गुड़ बन रहा होता, वहां पनुए रस से (जो खोई को फिर से पानी में भिगोकर तैयार किया जाता है) तबीयत तर की या कच्चा गुड़ लेकर दांत से उसके लड़ने का मज़ा देखा.
पुस्तक- प्रेमचंद: कलम का सिपाही
लेखक- अमृतराय
प्रकाशन- हंस प्रकाशन (राजकमल प्रकाशन समूह)
पृष्ठ- 591
मूल्य- 499
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